41 से 50 तक

41. पतित पावन सुनो विनती

तुम पतित पावन चारों ओर
पतित लोगों को तुम उद्धार करते हो
कैसे समझू करता विनती
तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो जाए,हे हरी
                      कांता मेरी, को क्यों किया दूर 
वह तो थी मेरी संपत्ति और शक्ति
पूजा उपचार तुम्हारे ऊपर उसकी
अपरिसीम अधिक भक्ति  ॥1॥
न था बहाना, झूठ,प्रताड़ना
                       हंसमुख,  किसे न था पता?
सभी को अपना समझकर
अपना स्वभाव,खुद की प्रेरणा ॥2॥
नम्र, शांत शिष्ट,हर जगह आदृत
 परिवार को हमेशा संभालकर
लेकर गढ़ी थी खुद के संबल से
किस कारण लिया उसका जीवन हर ॥3॥
बार-बार उसकी स्मृति का आधार
मन के आईने में आता बार-बार
वामांगी नहीं थी सिर्फ बातों में
सच में वह वामा-शक्ति का आधार ॥4॥
लायक उसके और देखूंगा क्या
पूर्व जन्म में मेरा विश्वास बहुत
तुम दया करो तो सब संभव
प्रभु जगन्नाथ दुख दूर करो   ॥5॥


42. आत्म-प्रत्यय

मैं किस अहंकार को लेकर
जीवन जीता हूं
मुझे देखने से आदमी केवल
अंधेरे में लकड़ी चलाता है ॥1॥
सभी की तरह उसके पास नहीं है
किसी गुणों का खजाना
सभी जानते-सुनते-समझते,समझाते नहीं हैं
किसमें कितना है दम ॥3॥
खुद को मानता है,उसे सब मालूम है
दूसरा कुछ भी नहीं जानता
अरे! बाबू, थोड़ा दिमाग लगाओ
बदमाशों की तरह छांट दिए जाओगे ॥3॥
इस संसार में एक से बढ़कर एक हैं
गुणों में भी एक से बढ़कर एक
उनके समाज अपने को बना
दुर्गुणों को दूर कर ॥4॥
कैसे समझाऊं तुम्हें
असूया संशय मत कर
ज्ञान का भंडार है असीमित
ज्ञान का आदर करो ॥5॥
जोड़,बाकी,गुणा,भाग
गणित अंक ज्यामिती
उपयोग करो ठीक समय पर
जगत में मिलेगी ख्याति ॥6॥
अपने आप को सम्मानित पात्र हेतु
न रखो मन में भ्रांति
अगर इच्छा है कुछ करने की
फैलाओ समाज में क्रांति ॥7॥
देखकर चारों दिशाओं में
भरी हुई विभ्रांति
नई मार्गों को खोज कर
कैसे आएगी शांति ॥8॥
सभी अस्थिर,परजीवी
कौन करेगा सुधार
आत्म प्रत्यय जगाकर
खुद कर सकते हो पारवार ॥9॥
गांधी नीति, सुभाष उच्छ्वास
आज समय की पुकार
हो उद्वेल देश असंभाल
विवेक का कर दंशन ॥10॥


43. दूज के चांद की प्रिया

उस दिन साँझ के समय
पूर्व दिशा से उदय होता
आ रहा था दूज का चांद
प्रिया थी मेरी गोद में ॥1॥
मंद-मंद मुस्कुराहट का झरना
बह रहा था उसके होठों से
तिरछी निगाहों के इशारों से
करती हुई आलिंगन ॥2॥
झीने बसनों से ढके अंग
याद आ रही थी सुहाग रात
देखकर जाग रहा था प्रबल सिहरन
आमोदित हो रहा था हृदय प्रगाढ़ चुंबन ॥3॥
फेंक दिया असंभाल उतरीय
मूँदे नयन की पलकों पर
छा रहा था रजनी घन अंधकार
वास्तव में लज्जा-लाज कर गई पलायन ॥4॥
यह नहीं ऐसी प्रीति
तन-मन-आत्मा का सम्मेलन
अद्यम,अपूर्व कला सम्मोहन
भ्रांति कहाँ,यह यथापूर्व रीती ॥5॥





44॰ नारी

नारी स्वयं में
अपने स्वयं का परिचय
अवगुंठनवती
माथे पर सिंदूर
आंखों में काजल
अभय मुद्रा
हाथों में खनकती
रंग-बिरंगी चूड़ियां ॥1॥
देखता मैं उसमें
महियसी माँ
सिर झुक जाता है
पाने को उसका आश्रय
आँचल के
कितने स्वरूप
असीम
अमृत पारावार ॥2॥
थे उसकी गोद में
अनंत,आकाश,पृथ्वी
हाथ की पहुंच में
उसके पास सब संभव
जननी,भगिनी
जाया,कन्या,शिव
सभी का समन्वय अनुभव ॥3॥
नहीं हूं मैं कालिदास
नहीं जानता वंदना
लक्ष्मी सरस्वती
काली की कल्पना
सीमित ज्ञान से
होगी क्या कल्पना
कहां है शब्दकोश
करूंगा वर्णन ॥4॥
नहीं जानता कैसे
“नारी” सुनयना
शब्दों के समाचार में
सृष्टि हो गई सूनी
शैशव से बुढ़ापे तक
वासना ही वासना
जर्जरित प्राण
अशांत बहाना ॥5॥
फिर भी तुम्हारी
अंतर-धारणा
उद्रेक होती नहीं
बिना किए करुणा
स्नेह–द्रवण सिक्त
अणु कण-कण
लौट आते हैं
रास्ते भटक ॥6॥
फिर भी यह नर
समझ नहीं पाता नारी
सर्वसन्हा दात्री
निर्झर वारी
कल-कल खने
काया विस्तारी
वह तपस्विनी
सभी की आदरणीय ॥7॥
किसी ने देखा नहीं
सृष्टा ने गढ़ी नारी
नरक के द्वार पर आज
करता है गुहार
आहे!  नरगण
धर्माचरण कर
आस्था रखकर
विवेक से पूछकर ॥8॥


45. आहे! पंडा,पड़ियारी, जगन्नाथ सेवक

लाखों कोटि भक्तजन
करने को तुम्हारे दर्शन
रथ यात्रा के दिन
रथ में आप आसीन ॥1॥
बाहुडा यात्रा में
और एक बार दर्शन के लिए
प्यासी निगाहों से
देखते चकडोला को ॥2॥
जितना देखने पर भी
मन भरता नहीं
कौन किस रास्ते से
कैसे आते दौड़-दौड़कर ॥3॥
सारे साल में
केवल दो दिन
पंडा पड़ियारी जितने सेवकगण ॥4॥
छुपाकर मत रखो जगन्नाथ को
जगाओ चेतना
विवेक से करो दंशन
सोच-विचार से ॥5॥
सारा वर्ष
जगन्नाथ आपका
भक्त-वत्सल
उन्हें नहीं होने दो हड़बड़ ॥6॥
पुरुषानुक्रम में
भोग करते
प्रभु पतितपावन
देखो आगे-पीछे ॥7॥
यथा समय
प्रभु-नीति
स्थापित करो
हटाकर अनीति  ॥8॥
भूखे रखो प्रभु को
अन्याय बड़ा
कब क्या घटेगा
जीव होगा जड़ ॥9॥
आहे! पंडा पड़ीयारी
जगन्नाथ सेवाकारी
यातना मत दो यात्री को
आपके सेवा के अधिकारी ॥10॥
चकाडोला सब देख रहे हैं
हमारे विविध खेल
समय बड़ा बलवान
आएगा अंतिम काल ॥11॥





46. उपलब्धि

उन्नत चिंतन, कटेगा जीवन
ये सब थी केवल भ्रांति
उठने की चेष्टा नहीं विरति
समाप्त हो रही शांति ॥1॥
विश्वास नहीं हो रहा
कहां रह गई कुछ भूल
पत्नी के पास पुत्र निवेश
आत्मा में खाली कलबल ॥2॥
लक्ष्य रखा था सूत गहन से
कट जाएगा बाकी जीवन
लज्जा खा रही रक्त,मांस,मेद
भोग रहे हीन-दीन  ॥3॥
शिक्षित वधू में थी कुछ आस्था
वह कर रही मुझ पर दया
पोता ढूंढ रहा पुकारते दादा
छोड़ नहीं पाता यह माया ॥4॥
धिक ! यह जीवन
सहकर निंदा,अपमान
बुद्धिमान वह हो आँख कान बंद कर
करता जगन्नाथ ध्यान ॥5॥

47. मेरा भारत महान

गर्व से बोलो मेरा भारत महान
जहां रहते हैं हिंदू,पठान
पारसी,बौद्ध,ख्रीस्टियान
प्यार से कहते उसको "हिंदुस्तान" ॥1॥
ओड़िया,बंगाली,बिहारी,मैथिली
मराठी,सीख,आंध्र,केरली
गुजराती,मारवाड़ी,सिंधी,तमिल
और जितने भी भाषा-भाषी
राष्ट्रभाषा हिंदी,
 अंग्रेजी नहीं छोड़ते हैं
मातृभाषा प्रीति के अधीन नहीं होते हैं
 बिना गुस्से से हिंदी नहीं बोलते
भाषा की उन्नति नहीं हो, नापसंद
हमने रचा है संविधान
खुद को उत्सर्ग किया महीयान
कहते हैं, कानून के सामने सभी समान
आदमी औरत कोई नहीं असमान
हम गूंगी जनता को साथ में लेकर
जाति-जहर के बीज बोते आसानी से
हमारे लिए सत्ता सब-कुछ
देश जाए रसातल में, कौन है पूछता ?
कितने बुद्धिजीवी,ज्ञानी,पंडित
देश के लिए कोई भी नहीं चिंतित
अरे मित्र,चलिए रखे अपना महत्व
खुद बचोगे तो पिता का नाम रख पाएंगे,सच में
विभ्राट चिंता अगर हम न करेंगे तो कौन करेगा ?
अच्छे लोगों का नहीं है स्थान, कौन नेतृत्व करेगा?
नदी के बीच नाव, तूफान आने पर कौन चलाएगा?
और विश्वास नहीं हो रहा है कि गांधी जन्म लेगा
पुराने राजे-रजवाड़े वीपी,डीवी नाम वाले
स्थविर अर्जुन दौड़ते हैं टेढ़े-मेढ़े
सत्ता की लालसा छोडे बिना विश्वास उसका भेदकर
यादव सजाते हैं अपने को माधव अविश्वासी रक्त से
ज्यादा देर हुई नहीं, हो जाओ सावधान
हो ज्यादा न  बिगड़ा, करो ऐसा विधान
 न हो अपमान, हो जागृत, खोलो नयन
झंडा ऊंचा रहे हमारा, हम स्वाधीन
विश्वास हो रहा है हम सभी भारतीय
जाग कर आगे बढ़ो होकर निर्भय
जितने भी बाधा-विध्न आए,बनाए रखो लय
गाओ "वंदे मातरम", कहो भारत माता की जय॥

48. उठो कालिया कान्हू
उठो कालिया कान्हू
आकुल भक्त विनती कर रहा है
नतमस्तक होकर ॥1॥
तुम्हारे दर्शन बिना
हृदय पाता सख्त आघात
जो मिटा नहीं सकता मन से ॥2॥
भक्त वत्सल
जगत के नाथ, हे जगन्नाथ!
विश्वास कालिया सुनो ॥3॥
मन की बात तुम जानते हो
भक्तों की भक्ति से तुम बंधे हो
क्यों बैठे हो शांत ॥4॥
जगत के कोने-कोने से
कितनी श्रद्धा से भक्त आ रहे हैं
पाने को तेरी चरण रज ॥5॥


49. आहे कालिया गोसाई

आहे कालिया गोसाई
सारे ब्रह्मांड में अद्वितीय तुम
अतुलनीय तुम  ॥1॥
इच्छामयी अंतर्यामी
भगत की वेदना आपसे अनजानी ?
दुख भोगता किसलिए ॥2॥
रक्त सिंहासन पर
पतित पावन पताका लहराता है
क्या मांगू तुझसे साईं ॥3॥
तुम्हारे जैसे प्रभु पाकर
वेदना यातना नहीं हो रही है कम
गर्भ मेरा शून्य रहा ॥4॥
बाल गोपाल मणि
आशा है गर्भ से मेरे
जन्म लोगे पुत्र मणि बनकर  ॥5 ॥


50. कानन बाला

किसको बोलोगे मन की बात खोलकर
आत्मा वेदना,विषाद भरी
किस के आंचल पकड़ेंगे बच्चे
आश्रय खोजेंगे
नश्वर शरीर हुआ अशरीर
फोटो में देखते हैं तुम्हारा चेहरा
एक बार ना देखें तो मन मानता नहीं
रहा स्मृति में अविस्मरणीय
नतमस्तक होकर प्रणाम करते हैं हर दिन
मिनी दीनी जुनी टुनी अधीरा
बापू टीटो साटो अंतर में याद करते हैं
चिंता करते हैं मां लौटेगी जरूर
इच्छा करते हैं,मन महकता है
पुनर्जन्म होने का करे इशारा
मेरी इच्छा पूर्ण होगी
हँसेगा मेरा संसार सारा
लालायित मेरा सारा परिवार
कृष्ण आएगा खोलकर कारा
लावण्य महक बांट दो प्रभु
जगन्नाथ प्रसाद नहीं होगा मारा

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