51 से 61 तक

51. अतीत वर्तमान भविष्य

अतीत मेरा क्या था,नहीं ध्यान धारणा
शैशव तो निश्चय था फिर क्यों प्रताड़ना ॥1॥
उस समय की धुंधली अनुभूति
छिपी हुई सुख-दुख स्मृति ॥2॥
मैं नहीं था पुत्र केवल माता-पिता का
दादा-दादी के खेलने का खिलौना
बड़े पापा,बड़ी मां,चाचा-चाची का प्यार
फूफा-फूफी,मौसा-मौसी सभी का दुलार
"यह मेरा,वह तुम्हारा" की विभोर भावना
न होकर कह रहा था खुशी पूर्वक संसार
कितनी भौतिकवादी विचारधारा प्रखर
लिखा है मधुसूदन राव कविवर
" बैकुंठ समान वह घर
पलता जहां परस्पर प्रेम"
वर्तमान में अपने कहने का जोर
कहने पर होगा पत्नी-प्रेम में अंतर
मां कहती थी स्त्री कमर की ओर देखकर
स्नेहमयी माँ चाहती पुत्र पेट को
संयुक्त परिवार सब हो गए चकनाचूर
सब जानते,समझते मगर न करते  विचार
सुकोमल बच्चों पर होता शिक्षा का भार
 शिशु सुलभ बाल्य चपलता हो गई कितनी दूर

मनुष्यता,सरसता छिप गई लोभ-अंतराल
अकाल नीती आदर्श थी किस काल
वर्तमान कटता विकलता में हलाहल
चतुर्दिग छल कपट, पाशों का खेल
यौवन के अपरहन में सहजता से पहुंची द्वार
पागलपन विलय घटता, सोचने का वक्त नहीं
जीवन बच गया मेरा कहां निस्तार
ढिंढोरा पीटता  एक विज्ञ परिवार
वायस के भार को कौन लौटा सकता है
कौन बेटा वार्धक्य लेकर यौवन लौटा सकता है
केवल धृष्टता अलीक स्वप्न वाचलता
पुत्र पुत्रवधू के पास कन्या दुहिता
अदृष्ट नियति के खेल देखता भविष्य
बीच की बात सोचकर या होंगे अस्त-व्यस्त
केवल एक मांग करता हूँ जगन्नाथ
मेरा शैशव लौटा कर दिखा दो आलोक


53. उनके लिए
जो नहीं बचे कुटुंब वाले, विलय हो गए अनसुने अलरे वे
निमज्जित पाप पंक, नर्क की भाग्य-लेखा
यह नहीं तुम्हें मालूम, यह आत्म वाक्य का मरम ।
खेलकर आँख-मिचौनी, निरानंद भविष्य तुम्हारे करम
खोल से निकलो बाहर, देखो अनुभव उज्ज्वल सुंदर पृथ्वी
हो विमोहित, सूँघो सुगंध, सुनो आत्मा की आवाज, होगी लब्धि ।
अपना लो उसे जो मनुष्य का सार
समय और लहर किसिका इंतजार नहीं करती, जो पाओ अभी करो
अमूल्य मानव जीवन, अयाचित ईश्वर का दान
यथाशीघ्र होगी उपलब्धि, प्रकृत नियोग और यशमान
जो अपनी मदद करता है सर्व शक्तिमान प्रभु दिखाते पाठ
उन्मुक्त समय उन्नति के द्वार, साहस, सफलता सत्यकाठ
विधि प्रदत्त सुवर्ण सुयोग हाथ से मत छोड़ो उसे
असंभव शब्द  भुलजाओ, अपूर्व साधन सशक्ति से ।



54.भाग्य रवि युवा शक्तिगण
हे! हमारे भारत के भाग्य रवि युवा शक्तिगण
तुम सभी में है, भरपूर अच्छे गुण ॥1॥
पिता,माता गुरुजन  मां मिट्टी देश के भूषण
सब होकर भी कुछ नहीं जैसे भोग रहे हो कषण ॥2॥ 
सोचना,चिंता करना, लुप्त हो जाओगे या खोजोगे कारण
कोई भी हीनमन्यता से भोगोगे जीवन अकारण॥3॥
संपद  भरा पड़ा है देश में, फिर भी क्यों अनाटन
व्यवस्था नहीं है क्लिष्ट, मानसिकता देखती अवगुण॥4॥
अपरिणामदर्शी, अविमूश्र्यकारी शक्ति सदा  अनुक्षण
मिले हैं उनके साथ कुछ स्वार्थी अविवेकी विचक्षण॥5॥
स्लोगन बनाते हैं "गरीबी हटाओ", "आम आदमी" जान
जनता के  हिताकांक्षी बोलते हैं ढककर मिथ्या आवरण॥6॥
येन-केन-प्रकारेण समाधान करने के लिए  मारते भाषण
महापात्र स्वांग भरते हैं तो मिटेगा क्या कषण॥7॥ 
स्वेच्छाचारी राज्य करते गणतंत्र धर्षण
अर्थनीति आज  निकम्मी, नीति का बंध्याकरण॥8॥
पंद्रह से कम, सत्रह  से नीचे, उन्नीस के युवागण
नई-नई दाढ़ी मूछें वालों के सपनों का सच मण॥9॥
उनका टारगेट, उनकी गोष्टी का साहसपन
कृषि मंत्री गाते क्रिकेट के गीत, छोड़ कर कृषि ऋण॥10॥
भूलकर नाना ढंग से करते उसका चित्रण
धन अर्जन में चतुर बणिक,  दिखाते आशा किरण॥11॥
रस चूसकर गुठली  से ठगते धूर्त
भाग्य विडंबना, धन्य पिता-माता चुपचाप,देखकर संतानों का असत ॥12॥
गांधी का बंदर कान बंद करके कहता कुछ मत सुनो
दूसरा मुंह बंद कर कहता हाथ मत चलाओ॥13॥
क्यों देखेंगी आंखेँ  अखाद्य भक्षण
                      यह है दुर्गति को आमंत्रण॥14॥
उठो जागो अपनी सत्ता को जगाकर दिखाओ अपने सदगुण
मरीचिका न पड़े यवनिका, उन्मेष, आहलाद, उन्नत युवप्राण॥15॥
गाए थे, देखे थे, अनुभवी,ज्ञानी,बुद्धिजीवीगण
असंभव होगे संभव,विकसित अगर हुए युवाजन॥16॥
समय रहते उपयोग में लाओ, अग्नि-स्फुलिंगों  का उदगीरण
कौन करेगा उनकी भावनाओं का अंत और उनका मरण॥17॥
आत्म-प्रत्यय, विश्वास, निज शक्ति में आस्था रखने से आएगी सिहरन 
मनुष्य की मनुष्यता आ जाए, तुम्हारे साथ विद्यमान हे! नारायण॥18॥
55. तालचेर वासियों का आव्हान !
हम तालचेर के मूल वासी
क्यों हाथ पर हाथ धरे बैठे हो ?
गर्मी में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस
विषम समय में और ज्यादा
हमारी चिंता चेतना क्या हो गई सुन
सेवादान धर्म सभी पुण्य
माँ की मिट्टी रोकर पुकार रही
हम आज क्यों बने इतने अकर्मण्य ?
हमारे सुख-दुख में माँ हिंगुला
अभय दायिनी
तुम मत हो निराश
अपनी आत्मा की सुनो आवाज
जागो
अविवेक से डूब जाएगा सहारा ?
भेदभाव अहंकार छोड़कर
निंदा प्रशंसा में न हो अधीर
मनुष्य बन मनुष्य को सुधार
बाधा विघ्न तोड़ बढ़ो तेजी से ।
कोई नहीं करेगा चिंता तेरी
हो आगे निष्ठापूर्ण और कर्मठ
आज का काम आज कल पर कभी नहीं
विपद नहीं, समझ के साथ ।
तुम आलस्य छोड़कर दिखलाओ इच्छाशक्ति
अपने आप में विश्वास, सत्कर्म और भक्ति
होगी गरियाँ और देव शांति
सब सहज मिलेगा मन में रख भक्ति
ओड़ीशा के नेता स्वयं नारायण
दिशा दिखाएंगे कर प्रभु स्मरण
उनके पाद पद्मों में मेरा कोटि प्रणाम
उद्धार होगा तालचेर का बढेगा उसका नाम ।
56. कौन क्यों सुनेगा
अब सभी कहते हैं वही बात
कौन-क्यों सुनेगा दूसरों की बात
हर जगह,घर,बाहर और रास्ते में
विधानसभा में,लोकसभा में,राज्यसभा में
हमारे गांव के चौपाटी से संयुक्त राष्ट्र संघ तक
समय कहां है किस को सुनने के लिए यह बात ॥1॥
जितने सब मनुष्य की बात
क्यों कहे,सब पहने मुखौटा
उनके मुंह से निकलने वाली बात नहीं
उनके पेट के अंदर की बात
मकड जाल की उलझन
कौन कैसे सुनें
दुअर्थी  शब्द कैसे समझेगा यह बोका
वह तो सहज से दूसरों को देता है धोखा ॥2॥
हमारे युवा छात्र देश के भविष्य
क्या पढे न पढे, मन भयाक्रांत
किसको बताएंगे मन की बात, समय अतिक्रांत
आज जो सोचा है कल अशांत
ढूंढता हूं सहानूभूति,करने हृदय सख्त
विधि-विडंबना,नहीं कोई थल-कूल,हुए भीत-त्रस्त ॥3॥
पोशाक ऐसी पहचान नहीं होती नर या नारी
पेंट शर्ट देखकर लगता विदीर्ण
नहीं नहीं पास मत जाओ उनके हाथ में छूरी
पिस्तौल नहीं तो बम पॉकेट में रख कर
हिंसक मति-गति बढ़ रहा है काया विस्तारी ॥4॥
सिर्फ मिथ्या असत्य का आवरण
कुहेलिका,पहेली,अजब-गजब आस्तरण
ईर्ष्यालु,असूया तन-मन
मटकी भ्रंश लूण
मां की ममता,मधुरता दिनों-दिन क्षीण
हर दिन हत्या होती सारे देश में कन्या भ्रूण ॥5॥
अखबार के पृष्ठों में मंडन
नारी सशक्तिकरण का
आगे में अंधकार,नारी भूली श्रेयमन
वह तो कन्या,भगिनी,जाया,माता,महीयान
अर्धनग्न पहन कर देती हैं विज्ञापन
अमूल्य नारीत्व की मर्यादा का हीनमान ॥6॥
अहंकार सिर्फ नहीं पुरुष में सीमित
अवगुंठनवती  सुश्री लज्जा त्याग करने में उद्धत
जानकर अनजान बन खेलने में सिद्धहस्त
उनकी नज़रों में आवाहन मुद्रा जीवंत
हमारी शुद्धता कहां से आएगी, होकर उन्मुक्त
संभोग सुख की चाह, भले घर में अनादृत ॥7॥
साहित्य,कविता,कहानी,प्रबंध में नहीं रीति-मान
कह रहे हैं चाटुकार उन्हें एक भिन्न
स्वाद,विच्छिन्नता,रंग-रस,अलंकारहीन
कुछ स्वार्थ अन्वेषी,अविवेकी,अविचारी जन
अपने-अपने को बढ़ा-चढ़ाकर पकड़े हैं स्थान
उनकी कृतियां तुम्हें समझ में आए न आए
पढ़ने से होंगे धन्य ॥8॥
इस अव्यवस्था में आत्मज्ञानी वयोवृद्ध एक
अपने आपको संभाले बिना बखान करते हैं सारस्वत-सत
धर्म क्या होगा विलय,ज्ञानी होंगे पराहत
अपेक्षा न कर पूछे, अंतरात्मा क्यों है शुष्क

सुन कर अबोध शिशु ने कहा,
देखते नहीं तो चारों दिशाओं में धर्मबक ? ॥9॥

57॰ माँ हिंगुला
माँ हिंगुला
त्रिपुर मेदिनी
कैसे पुजू तुम्हें
मुझ अधम को नहीं पता ॥1॥
तुम्हारी अपनी महिमा तुम्हारी अपनी गाथा
कैसे करूँ वर्णन
तुम्हारे चरणों में टेककर माथा ॥2॥
पश्चिम दिशा में जागी हो
पूरब देखकर
दक्षिण में दक्षिण काली
उत्तर में रुद्राणी ॥3॥
तू ही अधिश्वरी
गड़जात तालचेर की
तुम्हारी दया कृपा की भीख
और आश्रय मांगता हूँ बारंबार ॥4॥
तालचेर अधिवासी
नेतृत्व विहीन
हो रहे हैं अस्त-व्यस्त
क्या आप सुन नहीं पाती ? ॥5॥
उद्धार करो माँ ! उद्धार करो
मत विमुख हो
दिखलाओ वह पथ
कट जाए हमारे कष्ट ॥6॥
नर के मुंह में नारायण
तू ही नारायणी
माता अपनी मर्यादा रखो
दुख नाशिनी ॥7॥



58॰ आओ गांधी, अंबेडकर
आओ हे महात्मा गांधी
और एक बार जन्म लो
तुम्हारी भारतभूमि
खोज रही हैं आतुरता से
कोई तुम्हारा नाम लेकर
कष्ट से मिली हमारी स्वाधीनता
बनाते है खिचड़ी स्वाद हीन
परोसते हैं विश से । 1 ।
आने पर देखोगे और सुनोगे
तुम्हारा प्रिय ‘हरिजन’
विधर्मी जाल में पड़कर
करते हैं गिरिजन हैरान
कुई कंध, कंधमाल आदिवासी
सरल सभी के विश्वासी
खोई भाषा सबकुछ
आदिवासी बन गए हैं हरिजन पान । 2 ।
होओ आविर्भाव इस बेला में
कारितकर्मा संविधान का प्रणेता
बाबा साहेब अम्वेड्कर
हरिजन आदिवासी त्राणकर्ता
देखेंगे तुम्हारी परिनिती
भारतीय संविधान संशोधित
खो दिया है खो रहे है निज मूलसत्ता
गरिमा खो रही है दिन ब दिन । 3 ।
कह दिया लिख दिया केवल
तुम महानुभाव
दूर दृष्टा निश्चय पता हो गया होगा
क्यूँ करोगे पराभव ?
कितने नकली गांधी
तुम्हारी जगह ले लेता अकाट में
चमचे बजाते गिनी ढ़ोल ताल
उनकी जयकार, जनता जयकार में । 4 ।
इन सभी को समझ विचार
पृथ्वी पर लौटने का तुम्हारा कार्यक्रम
यमराज को पुछकर
प्रश्न ? रामसेतु को क्या श्री राम ने गढ़ा ?
ऐसी ही अरे भीम राव
तुम जगह अनधिकार
प्रवेश को जानोगे हे थोड़ा
ठीक या अठीक , आना होगा । 3 ।
लोक सभा नहीं है स्थल वितर्क
प्रवेश नहीं जहां ज्ञानी- बुद्धिजीवी
खोजते है उनसे समुचित व्यवहार
राज्य सभा बनी थी उनके लिए
बदल गई अव्यवस्था की चरा-भुईं
परित्यक्त कुचक्री कर रहे हैं अधिकार
उन आसार राज्य को मिलेगा सार ?
आत्मा चोटिल होती है कातर पुकार
आहे गांधी, भीमराव तुम्हारे लिए संभव
सत्ताहीन तुम हो आज –
वर्षा आशीष धारा, जिसका होगा अनुभव
बहुत सोच समझ कह रहा अबोध शिशु
वाणी विखरेगी चतुर्दिश राम, अल्लाह, यीशु
बुद्धम शरणम् गच्छामि, संघम शरणम् गच्छामि
हो सबका भला, तुम हो सत्या संधानी

59. मेरी प्रिय रे, कांता रे!

मेरी प्रिया रे, कांता रे !
और कहां देख सकता हूं तेरी
तेरी रूप-लावण्य की आभा
घने कुंतल, मोगरे के फूल
गजरे की शोभा
चमकती बिजली जहां
मेघ-मल्हार
और किसका
मेरी प्रिय कांता ॥1॥
और क्या वह दिन लौटेगा ?
सच में सपना होगा साकार
रहती हो प्रिया मेरे दिल में
नींद में,जागरण में,भाव में
आता कौन है,यामिनी अंत में
मेरी प्रिया  रे, कांता रे!   ॥2॥
रहती है सिर्फ स्मृति अवशेष
 आशा क्या खत्म होगी
 होता है अवशोष
कभी तूने नहीं किया निराश
मेरी उम्र अब ढल रही है
फिर भी तुम हो मेरे मन में
मेरी प्रिया रे, कांता रे ॥3॥
और कब 
मिलन होगा
लौटेगी वह छबि
मिथुन,छंद में विभोर में
मृगतृष्णा होगी सार ?
अनंत आशा अपार
आत्मा को घेरकर
मेरी प्रिया रे,कांता रे ॥4॥
है मेरा विश्वास पुनर्जन्म में
नहीं मैं निराश
मेरी अभिलाषा
जोहता रहूँगा बाट
विधि कहती जन्म-जन्मांतर में
मिलन जरूर होगा,घाट पर
मेरी प्रिया रे,कांता रे ॥5॥ 

60. निसंग जीवन
निसंग जीवन बहुत ही हिनमान
अंतर में जगाता हे दुख
आत्मीय स्वजन बंधु परिजन
सभी हो जाते हे विमुख । 1 ।

थे जो कभी क्षण-अनुक्षण
मानते थे अनुचर
अखोजा अनचाहा भाई अभिआड़ा
हो रहे थे बचस्कर । 2 ।
पिता माता के अंत पर किस तरह सभी
आप्त वाक्य “भाईगीरी”
भार्या अपनी और बाकी सब पराई
बाकी रक्त संपर्क मारी । 3 ।
बहिन,भांजी भोग रहे थे मजा
भांजी की नाराजिगी
बड़े प्यार से नाना प्रकार के
समझ रहा था उसका मन । 4 ।
सास-ससुर, काका, मामा-ससुर
कर रहे थे अधिकार
साले, सालियाँ एक-एककर
भोग रहे थे प्रीति मधुर । 5 ।
साले मन ही मन सोच रहे थे,
बहिन का मन पकड़
आवश्यक चीज पाना सहज
ले जाते थे बिना पुछकर भी । 6 ।
साली सब मेनका, उर्वशी
मंथरा प्रीति सुहागी
समय सुयोग उनका महार्घ
स्वार्थ सिद्धि में अनुरागी । 7 ।
गृहणी मेरी अति सरल
झूठ कपट नहीं जानती
दुख को सिने में दवाकर सहज से
व्यथा अपनी नहीं कह पाती । 8 ।
महियसी धन्य सप्तपुत्र कन्याओं
की थी माता
देवी देवताओं पर नेत्रों से ढालती तीर
पूजती थी विधाता । 9 ।
कैसे वह जानती थी, उसे पता चला
संशय हो गया प्रकाशित
असमय हमारी विधि न हो वाम ?
कौन करेगा बातें हँसकर । 10 ।
मेरा समय अंत होगा कैसे
तुम्हारी बातें हमेशा याद आती है
पास में रहेगा तुम्हारा अनुभव
जीऊँगा आँसू पोंछकर । 11 ।
अनचाहा जीवन आहे आर्त्तत्राण
विलीन हुआ तुम्हारे पास
जगत का नाथ हे जगन्नाथ
अधम कर रहा है गुहार । 12 ।


61. भक्त पुकारते जगन्नाथ

कोटि कंठ में उड़िया जन पुकारते हे ! जगन्नाथ
आकुल विनती करती यह जाति, पंडा को दिखाओ पथ
न जाने कहां-कहां से भक्त आते हैं, तुम्हारे दर्शन के लिए
असहाय होता है वह जब सुनता है,उपवास तुम्हारा जगत के लिए
साथ भोग लगाते जहां, विभिन्न प्रकार की नीति
सेवाकरी गण के अंदर अघटन, मंदिर में होती अशांति।
प्रबल प्रताप तुम न जप कर अहंकार मन से
कैसे सोचते हैं मेरे जैसा दुनिया में हुआ न कभी
गाली सह लो सभी, न सहो गर्व,अहंकार, कभीकार
तब क्यों नाथ भक्त अनाथ सहता है पंडों का अत्याचार
उठो हे! कालिया भगिनी बलिया नाश करो अन्याय अनीति
पंडा परियारी हो जाए आचारी रखो प्रभु तुम्हारी कीर्ति


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