21 से 30 तक

21.कौन होगा श्रेष्ठ ?

पूछो,पूछो एक बार,मेरे प्रिय छात्र-छात्राओं
जितने प्राध्यापक,अध्यापक कार्यरत इस विश्वविद्यालय में
शिक्षा विभाग या महाविद्यालय में
उनके आगे-पीछे की डिग्रियों के उत्स कहाँ से भरे हुए थे
उनको घिस-घिस कर किया है हासिल
आज क्यों उन डिग्रियों की जरूरत नहीं ॥1॥
गवेषणा के नाम पर प्रचार करते हो
शिक्षा के ढांचे में परिवर्तन चाहिए
ऐसे विचार फैलाते हो
तुम्हारे पूर्व विद्वान शिक्षाविदों से
केवल बहादूरी दिखाना सर
वही आप्त वाक्य थोड़,वदी,खड़ा ॥2॥
अरे! शिक्षाक्षेत्र के बड़पंडा गण
जिनके बच्चे पढ़ते हैं अंग्रेजी माध्यम में
थोड़े नीचे देखने से करते हैं खिचड़ी
नष्ट-भ्रष्ट हो रहा है छात्रों के जीवन
तुम्हारे अहम का पता चलता है छात्रों की रिपोर्ट से
बांध कर रखते हैं खुलती नहीं है पेटी ॥3॥
अरे जितने स्वार्थ अन्वेषी शिक्षा व्यवसायी
तुम्हारा खत्म न होने वाला लोभ
छात्र-छात्राओं के आराध्य देवता
देर से ही सही तुम्हारे मन में चेता
होंगे रे फिर नमस्य सारे समाज के
तुम नहीं मजदूर ही गुणवान ॥4॥
तुम ज्ञानी विज्ञानी विद्यादाता
बहुत नीचे आ गए अभी विश्लेषण
होकर दधीचि देश में बहाओ गंगा
समय अपगत बंद करो तुम्हारे गड़ा भंगा
विवेक चाबुक की ज्वाला मुक्त करें संशय
दूरदृष्टा पराकाष्ठा निष्ठा हो निर्भय॥5॥
देश प्रीति,छात्र वत्सलता,दिखाओ विद्वता
भर जाए भारत के कोने-कोने में तुम्हारी गुणवत्ता
तुम सत्यनिष्ठा,कर्मनिष्ठा अनुशासन की धारा
अविरत अनुरंजित सुखी हो धरा
आहे गुरु गुरुकुल हो अभय
जीवन के लक्ष्य खोज लो पाने में श्रेय॥6॥


22. भक्त बुलाते हैं जगन्नाथ

कोटि स्वरों में ओड़िया भाई
कहते हैं जगन्नाथ
आपको विनती करे यह जाति
पंडाओं को दिखाओ पथ ॥1॥
कहां-कहां से भक्त आए
तुम्हारे दर्शन के लिए
असहाय होते हैं,जब सुनते हैं
जगत के लिए उपवास ॥2॥
साठ तरह के प्रसाद जिनके पास
तरह-तरह की नीति
सेवाकारीगण के भीतर अघटन
मंदिर में होता अशांति ॥3॥
समझते नहीं, क्या उसके शिरीकांत
इसलिए तुम्हारे सिवा कारी
सेवक होते हैं दिशा भ्रमित
गलत रास्ते पर चलकर ॥4॥
प्रबल प्रतापी तुम्हें न जपकर
अहंकार भरे मन में
कैसे सोचता है मेरी कभी कुछ
क्षति नहीं होगी जगत में ॥5॥
गाली-गलौज सही पर गर्व नहीं सहे
कभी किसी का अहंकार
फिर भी क्यों नाथ भक्त अनाथ
सहता पंडों के अत्याचार ॥6॥
उठो हे! काली मां,भगिनी,बलिया
नाश करो,अन्याय-अनीति
पंडा-पड़ियारी बनो सदाचारी
रखो प्रभु अपनी कीर्ती ॥7॥

23. विरह में जगन्नाथ

प्रभु जगन्नाथ,मुझे और दुख
मत दो,मत दो,मत दो
सब सुख मेरा छीन लेते हो
लहरा कर नील-चक्र ध्वज ॥1॥
जीवन संगिनी सरल,निष्पाप
दे रही थी मेरा साथ
क्या सोचकर,असमय उसे मार दिया
किया तूने मेरा भाग्य भंग ॥2॥
गृह-उपवन में बोए तुमने
पौधों में खिलती कलियां
गृहिणी मालिनी पानी सींच रही थी
दिया उसका गला मोड़ ॥3॥
सर ऊंचा कर खड़े होने का साहस
बांधा था चकाडोला ने
चेहरे पर खिलती नन्ही-नन्ही हंसी
क्यों किया हैरान ?  ॥4॥
तुम्हारे इन संतानों को
मिले तुम्हारा आशीष
मातृहरा दुख यह सब भूल जाए
विशेष आशीर्वाद देकर ॥5॥
तुम्हारा नाम स्मरण करता गुहार
रखो प्रभु तुम्हारी टेक
विश्वास बना रहे उनके हृदय में
हरो हरि! मेरा दुख ॥6॥

24. हम गणतंत्र भारतीय

हम सिंहभाग के जन
हिंदुस्तानी भारतीय
खंडित भारत अविश्वसनीय
निर्भरशील   ॥1॥
धर्मनिरपेक्ष ने काटा एक पक्ष
घुमाकर कहा
फुदकते देखा सबने
केवल आंसू ॥2॥
मुस्लिम,इसाई पहले अपने को
नहीं कहते हैं भारतीय
देश की संपदा में उनका हिस्सा पहले
प्रदान करते हम अभय ॥3॥
किसे पुकारोगे जन्मदात्री माता
खाद्य जिनका गौमाता
वंदे मातरम क्यों कहेंगे
उन्होंने हैं जैसे जगत जीता ॥4॥
हमारी संस्कृति हो गई विकृति
फिर भी हम है महान
गीता,भागवत मातृभाषा संस्कृति
नहीं पढ़ाते अवधान ॥5॥
हमारी नीति-निष्ठा,आत्म-पराकाष्ठा
परखता अमेरिका
हिंदुओं को मारते कसौटी पत्थर से
हम करते मुंह बांका ॥6॥
चारों तरफ हमारे पास पड़ोसी
जितना करते उत्पात
जितने भी देने से प्रमाण
नहीं होते आश्वस्त ॥7॥
हमारे अभ्यस्त होने को काकस्थ
खड़े होकर कमर कसो
अरब देश के चमचे बनकर
होते देशद्रोही विष-कंटक ॥8॥
फिर भी क्यों चेतना नहीं आती
मगरमच्छ के आंसू बहाना
एक से बढ़कर एक उस्ताद
कोई उन्हें मार्ग भटकाता ॥9॥
हमारे नेतृत्व में ताकत टाटा बिरला
विश्वस्त अनुचर
आनंद करते उठते ये
बेशर्म बचस्कर ॥10॥
खोजते स्लोगन देश वित्तवान
खनिज खदानों से भरा
जल,जंगल,समुद्र,बेला-भूमि
लूटते विदेशी आवारा ॥11॥
महजूदकारी,चोर चालानकारी
व्यभिचारी,कर्मचारी
भेदिया,चुगलखोर,रिश्वतखोर
परधन हरणकारी ॥12॥
सोचते देश उनकी जमींदारी
लोगों से डरेंगे क्यों
शासन-प्रशासन कल उनका
पिछलग्गू, भत्ताखोर ॥13॥
बीता जा रहा अमूल्य समय
बाद में पछताना बेकार
जितने अविवेकी जल्लाद कुचक्री
पहचान कर करो व्यवहार  ॥14॥
होते हैं हरिकेन,टॉर्नेडो,टॉरपीडो
आंधी,तूफान,उल्कापात,सुनामी
जागेगी शंका,होंगे मूर्छित
उज्जवल होगा आगामी ॥15॥
सरल विश्वासी,मेरे भारत वासी
जागो है उद्दाम शेर
उठो लाल बाल पाल खुदीराम
दर्पित युवा निर्भय ॥16॥
उठो रे श्रमिक, खेत के मजदूरों
किसान और दादन भाई
टिड्डों की तरह
चारों दिशा में जाओ फैल ॥17॥
मुझे खून दो, दूंगा आजादी
कहा था सुभाष ने
भारतीयों ने न सुना था
खो गया था विश्वास ॥18॥
इतिहास पथ दोहराता है
वह समय आ गया है
देख लो एक बार,हिसाब किताब कर लो
चुन लो अपना पथ ॥19॥
नहीं तो हमारी लब्ध स्वाधीनता
पल भर में हो जाएगी लुप्त
आगामी युग के सृष्टा बनो
कंधे से कंधे मिलाकर ॥20॥

25-हम ओडिया
हम ओडिया
बीच बीच में
गर्व से बखान करते हैं
हमारी इतिवृत्त कथा
और आँकते हैं
हमारे आज और अतीत का
इतिहास ।
हमारी जन्म भूमि ओडिया
ओडिया हमारी भाषा
भाषा से
निर्मित हमारी राज्य
मगर हमारा आदर नहीं
दूसरों पर हम निर्भर
हमें देता है निराशा ।
आदर भाव से कहते हैं जिसे
उत्कल, ओड्र, कलिंग
पश्चिम ओड़िशा में “कौशल” की मांग
भले ही क्यूँ न हो जाए ओड़िशा भंग
अपनी कुल्हाड़ी अपने पाँव पर ?
राजनैतिक खेल का रक्तिम रंग
देखकर हो जाएगा छत्र—भंग
अँग्रेजी में ‘ओरिसा’
और राजधानी ‘कुत्तक’
अनुगोल का नाम अंगुल
और बना रेढ़ाखोल-रेराखोल
ऐसे अनेकों नाम
चले हैं,चल रहे हैं,चलेंगे
बिना किसी बाधा और विवेक के
हमारे पड़ोसी की नजरों में
ओडिया कोई भाषा नहीं
और हम कहते हैं, क्या हो गया
हमें कोई परवाह नहीं ?
`ओडिया भाषा बोलता है कौन
हमारे लिए अँग्रेजी श्रेष्ठ
ओडिया पढ़ता सुनता कौन
क्यूँ कोई होगा बैचेन ?
अँग्रेजी माध्यम के विद्यालय
सारे हाई-फ़ाई
हमारे बेटे-बेटियाँ फिट-फाट
और गले में झुलाकर टाई
सूट बेल्ट पहनकर
स्कूल जाते समय कहते हैं-हाय
माँ आनंद से कहती हाई
प्रत्युतर में – बाय,बाय
अपसंस्कृति तेजी से फैल रही है 
पता नहीं,
ओड़ीशा मिट्टी की ओडिया भाषा
बचेगी या मिट जाएगी?
आज हम खड़े हैं जिस संधिकाल में
 विभ्रम-विभ्राट कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा
क्या कोई भागीरथी गंगा लाएगा
जो विनाश कर देगा उन खंडहरों  का
खरसुआ और सरायकेला
आएंगे नहीं नहीं पोंछकर अश्रुल आँखें
आओ आओ ओडिया पुत्रों
उत्कल, कलिंग, कौशल कहो
माँ से मातृभाषा
हृदय में दो इसे स्थान
संसार में कोई नहीं ऐसी संतान
जो देखेगा अपनी माँ को हीनमान ।
नहीं, नहीं
हम ओडिया
सारे जगत में बढ़िया
खाली  कथन से नहीं चलेगा काम
दिखाना होगा हजार-बार
सभी के चेहरों पर खिलेगी ओडिया भाषा
और पुष्पित होगी मेरी मातृभाषा
मेरी यही अभिलाषा ।

.......


26. तुम को चुन लूंगा मैं

स्वर्गिक सुख जैसी
इस भव संसार में
अगर कोई चीज है
पाने के लिए
अगर ढूंढना पड़ेगा
तुमको चुन लूंगा मैं ॥1॥
मधु कहां पर है
कोई अगर पूछे कहूंगा
निस्संदेह
तुम्हारे गुलाबी अधरों पर
अधर रखने से
अनवरत मधु झरता ॥2॥
सुगंध कहां है
जो मतवाल करता
मन चाहता बार-बार
दृष्टि-भंगिमा
आमंत्रण इंगित में
निबिड बाहु बंधन में ॥3॥
किसी की मधुर गुंजन
सुनकर प्राण पुलकित
चित्त होता आंदोलित
मधुप नहीं वह कोयल
फूलों में,पत्र-गुच्छों में
क्यों होते प्राण आकुलित  ॥4॥
दूसरी चीज क्या चाहिए
गुलाब से ज्यादा सुंदर
पूनम चांद की तरह सुंदर
निटोल,सुठाम पल्लव
विधाता का वैभव
तुम्हारा भोगनीय संभार  ॥5॥
असहनीय विलंब
मिलन-ज्वाला अस्थिर
टूटता दंभ
आ जाओ मेरे निकटतर
सुयोग-समय अनुसार व्यवहार
तुम्हारा प्रतिबिंबित कदंब ॥6॥
तुम्हारे पास कुछ भी नहीं अबूझ
तुरंत हठधर्मी
नहीं मानता तुम्हारी सीख
अतर्कित तुम्हारे समर्पण
खोई वस्तु मिल जाने पर
आता है मजा  ॥7॥


27. प्रकृति पुरुष

तुम जब मुझे
लोगी निकट
तुम मेरी खुशबू से पहचानोगी
पहुंचने को
तुम्हारे सामने
देखो हो न जाए देरी ॥1॥
तुम अगर मुझे
लेती हो अपना
मधुपटल खोलकर
भँवरा नहीं जानता
कब रात हुई
बंद कमल में रहकर ॥2॥
तुम वास्तव में मुझे
गले मिलती आतुरता से
आंखों से आंखें मिलाकर
आभूषणहीन
मुक्त बेणी के
गहनो में ओढाकर ॥3॥
पीन पयोधर
पहाड़ों के बीच
ढूंढती रसना
अमृत कलश को
सोमरस मिश्रित
सूंघकर खुशबू ॥4॥
तुम ऑक्टोपस के
बाहों के बंधन में
क्या मुझे बांध लोगे
पहनकर आंचल
कैसा चंचल
गिरा दोगे सहज ॥5॥
प्रखर निश्वास
तुम सजे-धजे
केवल शरीर पुंगला
तुम्हारा मधु चक्र
होकर रसासक्त
चाहता रति-कला ॥6॥
तुम्हें क्या मालूम नहीं
अब अभुक्त शरीर
जानता नहीं अच्छा-बुरा
तुम्हारा समर्पण
उसके अधीन
टूट गया बालू बंध  ॥7॥
तीव्र आकर्षण
क्या हटा देगा
आवाहन पौरुष की
स्थिति,भ्रांति,नीति
मान जाएंगे हार
मग्न हो जाएंगे प्रीति के नीर में ॥8॥
प्रकृति पुरुष मिलन अवश्य
होगा बारंबार
काम,सुहागन,प्रेम,आतुरता
तुम्हारे लिए उन्मुक्त द्वार  ॥9॥


28- क्यूँ सुनेंगे दूसरों की बातें
सभी के मुंह में एक ही बात
कौन सुनता है किसकी बात
कोई भी जगह हो विधान सभा या चौपाल
धर्म सम्मेलन या संयुक्त राष्ट्र संघ ।
एक से बढ़कर एक
मगर समय कहाँ है
सुनने को दूसरों की बात ।
आदमी का चेहरा महान मुखौटा
जो कहते नहीं है अंतस की बात
सब दिखते है अलग-अलग
कौन समझेगा द्विअर्थी आग ?
एक हाथ जेब में
दूसरे हाथ में छ इंच धुरा और बम
हिंसक भाव से भरे
देखने आरडीएक्स बेताब
गोली बम विस्फोट का ख्वाब
चारों तरफ धुएँ और कोहरे का मिथ्यावरण  ।
अपवित्र नकली घी की शिखा ।
निरीह निष्पाप श्रमजीवी कुटीर निवासी
पेट पालने में मशगूल अन निश्वासी
उनके पास समय कहाँ, जानने को पास-पड़ोस
हिन्दू पठान ईसाई या पारसी ।
किसमें रखे आस्था, राम अल्लाह या यीशु
चारों तरफ घर घर में अविश्वास
मानव खेल रहा होली मानव लहू के संग
विषकुंभ पयोमुख ईश्वर के संग ।
यह जानकार पार्थिव सुख अलीक
प्रकृति पुरुष सव्य सभी भेक
दिखने की प्रतिस्पर्धा असीम
सोने के गहनों की कीमतें गगन चुम्बी
नारी भूल गई मर्यादा आजकल
कन्या, भगिनी, पत्नी, माता महियान
अपनी मर्याद कर रही म्लान
देकर अपने अमूल्य नारीत्व का नग्न विज्ञापन ।
अंहकार मर्दों में ही सीमित नहीं
घूँघट वाली नारी लज्जा त्यागी हुई उद्धत
आत्मशुद्धि क्लिष्ट हुई पराहत
ज्ञानी-ध्यानी गुनिजन आज अनावृत
साहित्य में मातृभाषा का विचार
स्वार्थिजन नहीं कर रहे अंगीकार
आज की कविता साधारण के लिए अबोध
समझे या न समझे मगर पढ़ने का बाध्य
ऐसे समय में आत्मज्ञानी वयोवृद्ध एक
पूछते अन्त रास्ता क्यों शुष्क
अबोध शिशु ने कहा, क्यों करते हो बकबक
देख नहीं रहें शोभायात्रा में धर्मबक ?

29. कानन दर्शन

जितना मैं जानता हूं तुमको
और कौन जानेगा
मुझे जो जानता है वह तुम
और कोई भी नहीं ॥1॥
पाठ में जाना था भार्या
सोलह गुणों से परिपूर्ण
महक उसकी मिली 
सभी गुणों से आभा॥2॥ 
धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष
भार्या के पास मिलन
बातों की मर्यादा
तुम्हारे पास अक्षुण्ण  ॥3॥
गृह कार्य में पारंगत
सच में गृह मंत्री
चिंता अवकाश नहीं था
तुम सुचारु यंत्री ॥4॥
स्वामी सेवा यत्न पाथेय
तुम्हारी जीवन धारा
दासी क्या समान होगी
तुम्हारी सेवा अतुल्य ॥5॥
बनाना सुस्वादु भोजन
मेरी मां की तरह
प्यार से परोसने वाली
और कौन होगी ॥6॥
भार्या प्रेम स्वभाव
था तुमको मालूम
शयन में रंभा रति में
कभी कम नहीं की ॥7॥
स्वधर्म भावना खुद की
धर्मप्राणी जीवन
समझकर हम लोगों को
दिया समुचित सम्मान ॥8॥
दया,दान,श्रद्धा,क्षमा 
मूर्तिवत प्राणी
धरती की तरह सहे हो
मेरा ताप संताप ॥9॥
धर्म जिसको समझाता
वह था गृह कर्म
पालन  में थी दक्षता
समझ में उसका मर्म ॥10॥
अर्थ का अभाव समझकर
नहीं किया अनर्थ
व्यय करती आय से
वर्जन कर अपना स्वार्थ ॥11॥
नहीं थी कार्य में आसक्ति
फिर भी थी प्रवृत्ति
स्वामी के आग्रह-संग
रखकर अपनी सहमति ॥12॥
छल-कपात से दूर
शांति से रहने के लिए
मोक्ष पाने को निरंतर
सोच रही थी मन में ॥13॥
तुम्हारा संसार से प्रयाण
मैंने किया था लक्ष्य
या शिव की कृपा से मिला
तुम्हें जीवन मोक्ष ॥14॥


30. आधुनिक गद्य कविता
सब समझकर भी
नदी के मध्य
डूबता मेरा नासमझ मन
श्रद्धा पूर्वक लिखता है कविता
कब क्या लिखा
कुछ याद नहीं
अर्थ पूछने पर लड़खड़ाने लगती है जीभ
कहते है उसे गद्य कविता
बिना सिर पाँव की, बिना रूपरेखा या सत्ता की ।
नए अनुभव, नई ध्यान-धारणा
नए परीक्षण-निरीक्षण, नई भावना
इधर-उधर भटक जाता है ‘मूल’
‘रचनाकार’ के मन में होता है ‘शूल’ ?
बड़ी आशा के साथ पाण्डुलिपि
लेकर हुआ मैं खड़ा प्रकाशक के द्वार
नया चेहरा देखकर उसने जो कहा
ऐसा लगा मानो किसी ने मारा हो सर पर हथौड़ा ।
मैंने पूछा, आप प्रकाशक है ?
नाराजगी भरा जबाब मिला, क्या हुआ ?
तभी समझ गया सारा हाल
पुस्तक छपवाने का व्यर्थ ख्याल ।
बहुत अनुनय-विनय के बाद
महाशय के मन में तनिक दया आई
‘पाण्डुलिपि रखो, यहाँ मेरे भाई’
बाद में बताओंगा, कैसी है बनाई ?
नए भिक्षुक योगी की तरह
कुछ दिन बाद फिर प्रकाशक के पास
दाँत भींच, हाथ जोड़ हुआ मैं खड़ा
पाण्डुलिपि कैसी लगी महोदय ?
प्रकाशक ने कहा
मेरा सिर चकराया एक घिसी की तरह
नगद देने पर ही छपेगी
और बिक्री का जिम्मा रहेगा तुम्हारा
छपवाने का खर्च बीस हजार
देना होगा एक साथ सारा एडवांस
छापने की जल्दबाज़ी नहीं चलेगी
सुविधा होने पर ही यहाँ छपेगी
अधीर होने की जरूरत नहीं पड़ेगी ।
देखकर मेरा नीरस चेहरा
हँसते हुए प्रकाशक ने कहा
गद्य कविता लिखने का तात्पर्य
व्यर्थ में समय, श्रम की बरबादी
कवि बनने की आशा
कविता लिखने का शौक
एक ही पल में हो गया चूर
‘जा रहा हूँ’ कहकर किया प्रस्थान
कान मरोड़ लिया संकल्प
और – कविता कभी नहीं ।
कभी नहीं ।

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