11 से 20 तक

11. जागो मजदूर किसान

जागो रे जागो खेतिहर मजदूर
अल्प, मध्यम,लघु किसान
राजनीति की मीठी बातों में
और तुम न फँसो ॥1॥
अल्प धन विकल मन
पुत्री समेटती उपले
बेटा तुम्हारा दिहाड़ी मजदूर
पाता नहीं पखाल बासी ॥2॥
सपने दिखाता गाँव का सरपंच
परपंच फैलाता हँसते हँसते
चुटकले कहते कहते
कूजी नेता बरामदे में बैठे बैठे ॥3॥
बड़ी बड़ी गप्पे हाँकते हाँकते
पुकारते अरे मौसी
तुम्हारा पति कहाँ गया ?
यह कह कर घुस आते घर में ॥4॥
चुगलखोर वह लड़का
करने लगता इशारा
अछि बहन मेरी बात सुनो
अमुक चिन्ह को वोट दे कर आना ॥5॥
बक बक क्यों करते हो
सपने किसे दिखा रहे हो
माँ व्यभिचारिणी पिता हरामी
धिक्कार तुझे लाज शर्म नहीं आती॥6॥
होशियार बनो ठगे मत जाओ
गाँव साहूकार जंगल
बैंक कृषि ऋण सहज नहीं
आत्म हत्या क्यों कराओगे भाई ॥7॥
खेत खाली मत रखो भाई
चेहरे का पसीना मुंह तक आता
जानते हो तुम खेती लगातार
समय रहते ही जागने से जाओगे तर ॥8॥
अन्य बातों में दूसरों की जमीन पर
मत रखो ज्यादा लोभ बड़ा विषम
अपनों के बीच लगाते झगड़े
गाँव के टाउटरों को नहीं कुछ शर्म ॥9॥
खेत मजदूर अल्प किसान
माध्यम किसान से कंधा मिलाओ
फैलाओ फसल दुनिया देखे
दुख भागेगा अपने आप ॥10 ॥

12॰ मेरे लिए

मुझे चाहिए 
तुम्हारे पूर्ण अवयव
नख से नासिका तक
त्रिभुवन की
सारी सुंदर अप्सराएँ
उन सभी का समाहार
जिसने भी देखा होगा
पुकारा होगा,सोचा होगा
ऐसी सुंदरता भी क्या
धरती पर भी संभव ॥1॥
खोजने की भाषा
कवि,भावुक कथाकार
चित्रशिल्पी सोचते होंगे
कौनसा रंग किस अंग पर
तूलिका से रंग देंगे

अविस्मरणीय यौवन
सम्पूर्ण वैभव
खुले हाथ रुक जाएंगे
अपलक नेत्रों से
विस्मित मन सिकुड़ेगा ॥2॥
धूप, बरसात, सर्दी,
शरद,हेमंत,
किसी को नहीं मिलेगा चारा
सभी एक दूसरे को पकड़ कर
परिपूरक बन
मानेंगे खुद को धन्य
अपनी अपनी संपदा ले कर
तोड़ेगी तुम्हारी अंग वल्लरी
मनमोहक खुशबू
सुकोमल तनुश्री पलल्व
भरेगा इस धरा का सम्पूर्ण वैभब
मेरे हाथ की पहुँच में
मन प्राण की ऊर्जा से
मिलने को आतुर ऋतुराज बसंत ॥3॥

13. तुम्हारे लिए

खिली हुई इतनी आभा
इतनी शोभा
चकाचौंध आंखे
महकेगा ख़ुशबुओं का समाहार
विमोहित प्राण
प्रीति अपनाकर॥1॥
कैसे कहूँगा
सब कुछ गया मैं भूल
केवल कलबल 
खोल दिया है हृदय
पड़े-पड़े अटक जाएगा क्या ?
सच कह रहा हूँ ॥2॥
नहीं नहीं वृन्त में रहो
देखते जितने प्रेमीजन
अपलक नेत्र
हो जाए स्थायी,शाम तक
कल उगाने वाले बाल-सूर्य की तरह
हंसाओं खूब ॥3॥

14. समीक्षक के लिए

हे बंधु बराल
क्यों हो रहे हो वाचाल
तुम डक्टर,नहीं डॉक्टर
मंतव्य देने का खेल ॥1॥
कह रहे थे सभा मंच पर
अच्छी तरह पढ़ नहीं पाया
समय के अभाव में
तिनका  भी पकड़ नहीं पाया ॥2॥
असंयत रसना
बंदी विवेक
संभ्रम अपमान
श्रद्धा हो गई चूर-चूर ॥3॥
साधारण सभा के सामने
इतनी हिम्मत
अहंकार के घने कोहरे के भीतर
घुटनों के बल बैठा दीनमन ॥4॥
स्रष्टा की सृष्टि के श्रेयमान
देखेने के लिए अंतर्दृष्टि थी
कृतिमानों को कर हेय ज्ञान
बखानते नहीं तीक्ष्ण बुद्धिमान ॥5॥
अतीत की बातें
असंयत नहीं होने की कथा
अनायास दूसरों की व्यथा
केवल तुम्हारा मुंह देखकर नहीं कह रहा हूँ ॥6॥
विडम्बना क्यों सदज्ञान
उद्रेक न था तुम्हारे पास
विद्या ददाति विनयम
विस्मरण हो गया सहज से ॥7॥
आहे आलोचक,समीक्षक
समालोचना आसन की टेक
रखनी होगी तुम्हारे लिए श्रेयस्कारी
सिर ऊंचा होगा ठिकाने लगाओ विवेक ॥8॥   



15॰ हम प्यासे

ये आलसी
कम वयसी
नहीं सोलह वर्ष की
फैशन ज्यादा
मिथुन राशि ॥1॥
मंद मंद हंसी
चलाती अशि
मैं बाईस
तुम चालीस
अठारह से ज्यादा
मत जाओ
आंचल खोंसी
शरद शशि
मेरे गोद में आकर
जांघों पर बैठकर
मुझे भरोसा कर
परोस कर
तुझे सहलाकर
जाओगे मिल
देंगे तुझे खुशी
लेखन-मसी
भरुंगी आकर
हम प्यासी



16. लता का समर्पण

सर्दी के रात के आतुर मिलन की अनुभूति
सदा जीवंत जिसे नहीं कभी भूला जा सकता
स्वच्छंद सावलील कामना,वासना, पुनर्वार
केवल मुंहामुंही तर्क-वितर्क बारंबार ॥1॥
ऐसा निबिड आश्लेष बाहु-बंधन
लग रहा था जैसे ऑक्टोपस बंधन
सुबह होने की थी फिर भी खत्म नहीं हुआ था
मुक्त-केश मधुचक्र फरफर  ॥2॥
कैसे क्यों सहज से तुमने खोल दिया
भोग का प्रथम अर्घ्य,यौवन का घंटाघर
मजती काम-ज्वाला,निश्वास प्रखर ॥3॥
आत्मा शरीर परस्पर एक हुआ था
तृप्ति नहीं खत्म हुई काम के प्रलय में
लता के इंगित से ज्वालामुखी विस्फोट
मौका नहीं छोड़ा था, सोचने का एक पल भी ॥4॥
कल-कल,छल-छल स्वर धीरे-धीरे
पिपासा परिपूर्ण का सुयोग
ऐसा पल ढूंढने से मिलता नहीं
स्वीकार करो समर्पण पुष्पित साहसी नारी का ॥5॥

17. चतुर पुलिस

चतुर पुलिस मिल जाती चोरों के साथ
मौका देख सिपाही खाते झूठे थप्पड़ और चिल्लाते हैं ॥1॥
अहा! बड़े चोर यहां से कहां चले गए
महिला पुलिस अधिकारी से अंगूठी और हार चोरी करने ॥2॥
क्या किया बेवकूफ गलत जगह पर हाथ मारा
जेल में ठोक डालेंगे जैसे ही होगी बेल ॥3॥
कहां थे पत्रकार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दल
  प्रकाशित कर देंगे पुलिस का चेहरा असल ॥4॥
विधानसभा भंग हुई,उठे,जगे विरोधी दल
चौंक कर लगे गर्जन करने अथर्व सरकारी कल ॥5॥
टीटो हैदर भाई शहरी पुलिस के  इनफॉर्मर
सभी इकत्र होकर घिराव करते,पागल हो गया जेलर ॥6॥
जेल के भीतर खास बिरयानी छूटते शराब के फव्वारे
मोबाइल कितना जरूरी आगे से होते इशारे ॥7॥
हत्या,आगजनी,बैंक लुटेरे हमें नहीं भय
वहां से परसेंटेज मिलता होती विपुल आय ॥8॥
बड़े से छोटे नेता तक पाते मासिक खंजा
नाक,कान मोड़कर,दांत निपोरते जैसे डंडे का रंजा ॥9॥
पुलिस से मिले बड़बोले,चिकनी चुपड़ी बातें
सही समय पर खबर देते, सजग करते ॥10॥
क्या सरकारी,क्या विरोधी नेता एवं भेद जन
एक रसोई बनाता तो दूसरा साफ रखता आंगन ॥11॥
दोनों दलों के अगली पंक्ति नेताओं का आश्रय खोजती
कालेधन में डूब-डूबकर किसी तरह आय छुपाती ॥12॥
गुप्तचरों  के खबर रिकॉर्ड, आगे पड़ेंगे दरकार
आंखों के बदले आंख लेते, देते सिर पर पहार ॥13॥
मुंह में जोर,दिल से कमजोर,निकल जाएगा गुबार
हमारी आदत हो गई, देखने को उनका दुराचार ॥14॥
भय आतंकित पुलिस आज पाती नहीं थल-कूल
माओवादी का पलड़ा भारी, करते उत्पाद प्रबल ॥15॥
उनके हाथों में आज राइफल,RDX बम
लठैत पुलिस जीवन बचाते, खोजते जीवन बीमा ॥16॥

18. आज का देशप्रेम

जाति,वर्ण,धर्म,लिंग-भेद विष के बीज
न बोने से भाई आज चलेगी क्या राजनीति
नेता चुनते बिन विचारे गुंडा बदमाश
राष्ट्रीय संपत्ति लूटने की जिनकी मति-गति ॥1॥

सब जानकर नहीं जानने का अभिनय
करने की ली है जिन हमने दीक्षा
हमारी चमड़ी गेंडे की, किसी का नहीं भय
शक्ति में हमारी लय, वह हमें देगी सुरक्षा ॥2॥

हम जितने भी राजनेताओं ने वोट जीते हैं
आदर्श-विहीन केवल खर्च कर टंका
बूथ कैप्चरिंग की धारा से कला सीखते हैं
अपने आप को उस्ताद और दूसरों को समझते बोका ॥3॥

बातों में कहते हमारे वोटर बहुत होशियार
गणतंत्र की कुल्हाड़ी के हम हैं खूंट
जोड़ बाकी नहीं जानते मगर कर पाते हैं
कल का शत्रु आज मित्र,भाईचारा की भेंट ॥4॥

राजनीति-कूटनीति केवल गोटी चलाना
अविश्वास,छल,ठगी,कपट कारोबार
सत्य छिपता शर्म से  विवेक के उस पार
पाठ भूल, शाठ ठीक धर्म का धिक्कार ॥5॥

बचा रहेगा पिता का नाम और नहीं कुछ भी
कल,बल,कौशल से आगे बढ़ते जाओ
हमारा स्वार्थ सब जगह आज का न्याय कहलाता
विज्ञ,अभिज्ञ की इच्छा नहीं मूर्खपन कहलाता ॥6॥
कोने-कोने में सब एक जगह काले-काले पहाड़
प्रतिष्ठा,ख्याति,धन-संपदा सब एक तरफ
भ्रष्टाचार की बाढ़ तोड़ती जाती बंध-बांध
ज्ञानी-मानी उदास चुपचाप मुंह बांध ॥7॥

जगन्नाथ के नंदीघोष में नहीं है जात-पात
जन-सत्ता के रथ में गढ़ी है जात-पात
अल्पसंख्यक की खोज, वोट बैंक की प्रीति
सत्ता के सम्मुख आकर लगाते झगडा-झंझट ॥8॥

कितने देश-प्रेमी महात्माओं ने लाई थी क्रांति
देशवासियों में था विश्वास, होगा ग्राम स्वराज्य
मनुष्यता चूल्हे में जाए, नहीं है कोई भ्रांति
भूतकाल को रहने दो,भविष्य में विश्वास नहीं, वर्तमान का भोग करो ॥9॥
विधि-विडंबना यह पाकर आश्वासन
उठो रे साधु प्रज्ञा लगाओ प्रिय विज्ञजन
तुम जानते हो आने वाली पीढ़ी करेगी नहीं क्षमा
विरोध में लड़ने के लिए हो जाओ सख्त दृढ़ मन ॥10॥
कर आत्म निरीक्षण गंभीर समय
उपगत बांध सेतु गिलहरी लेकर
युवको उद्वेलित हो निर्भय
भिन्नता से नई सृष्टि मन में ध्यान कर॥11॥


19-हम कवि कवयित्री
आओ हम सभी कवि कवयित्री ‘मने पकाऊ’ सभा में
चिंतन करें
हमारा सृजन कैसे कोने-कोने में ।
किसान हल जोतने
कृषिकर्म करते अपनी जमीन पर
लिखता है कविता
बैलों को हाँकते समय वह भी गुनगुनाता है ?
ब्राह्मणी नदी के किनारे
नाव को नदी के बीच खेते समय
केवट के कंठ की मधुर तान
क्या तुम्हारी कविता की पंक्ति बनती है ?
पहुँचो,पहुँचो कवि,
जहां तक पहुँच न सका आजतक रवि ।
लिखो ऐसा खोलकर
अपने मन के द्वार की
सभी के मन के नजदीक हो जाए ।
आत्मा में आत्मीय भाव
घर्घर नाद से घोषित अत्यंत मार्मिक
तुम्हारे काव्य की हो ऐसी कविता
कि मूकं करोति वाचालं
पंगु लंघयते गिरीं ।

20. कालिया भरोसा

दुखी लोग एक ही आकुल स्वर में पुकारते
हे! प्रभु जगन्नाथ
तुम्हारे आश्रय के बिना श्री हरि भरोसा
कर लोटता है अनाथ ॥1॥
कितने विश्वास से तुम्हारे श्री चरणों में
माथा पीटकर  करता है आशा
तुम्हारी आशा के सहारे होता है आलिंगनबद्ध
कभी नहीं होती निराशा ॥2॥
आज नहीं तो कल पूर्ण होगी आशा
देखता रहे चका-आंखों में
वह क्या जानेगा तुम्हारी लुकाछिपी
खेल, वह जो भोलाभाला ॥3॥
आंखों से आंसू गिरते नीचे
कभी जाते सुख
जान नहीं पाता,बीतते दिन
रहता तुम्हें निरख॥4॥
कितने परीक्षण-निरीक्षण
करता भक्त कालिया
कितनी संतुष्टि, कट जाता बुरा वक्त
आस्था बनाए रखो गुहारिया ॥5॥
और नहीं कर सकता,कालिया गोसाई
मत तोड़ो भक्त का भरोसा
हिलेगा-डुलेगा रत्न-सिंहासन
कौन देखेगा तुम्हारी दिशा ?॥6॥

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